कुछ ज़ख़्म इस क़दर
दिए हैं अपनों ने
घायल अपनों की ही
मोहब्बत से हुए हैं हम।
जरा सलीक़े से कहते
खुदाया उफ़्फ़ ! ना करते
मगर ख़ंजर से अल्फाजों से
बेहद घायल हुए हैं हम।
पहचानना ही छोड़ दे जब
आईना मेरे अक्स को
फिर अपने ही घर में
अनजान हुए हैं हम।
कभी मुश्किल कभी
आसां सी ज़िंदगी में
हर बार नये आग़ाज़ से
परेशान हुए हैं हम।
लोग इल्ज़ाम बड़ी
बड़ी तबीयत से लगाते हैं
प्रीत लगा कर कुछ यूँ
बदनाम हुए हैं हम।❤️❤️
दिए हैं अपनों ने
घायल अपनों की ही
मोहब्बत से हुए हैं हम।
जरा सलीक़े से कहते
खुदाया उफ़्फ़ ! ना करते
मगर ख़ंजर से अल्फाजों से
बेहद घायल हुए हैं हम।
पहचानना ही छोड़ दे जब
आईना मेरे अक्स को
फिर अपने ही घर में
अनजान हुए हैं हम।
कभी मुश्किल कभी
आसां सी ज़िंदगी में
हर बार नये आग़ाज़ से
परेशान हुए हैं हम।
लोग इल्ज़ाम बड़ी
बड़ी तबीयत से लगाते हैं
प्रीत लगा कर कुछ यूँ
बदनाम हुए हैं हम।❤️❤️
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