बंधन रिवाजों के
कुछ ऐसे हमें जकड़े थे
रूह ए सनम संग
इश्क़ की राह हम
 चल न पाये।

मुसकुराहटों के बोझ
कुछ लबों पे
ऐसे रखे थे
ग़ुबार खुद में दबा कर
हम तो खुल कर
रो भी न पाये।

फ़र्ज़ों के सौग़ात
कुछ यूँ हमको
अता हुए थे
बस यूँ तकते रहे
दूर जाते दिल के रिश्तों को
बेबस हम
रोक भी न पाये।

परवाह ,इज़्ज़त प्रीत को
कुछ इस क़दर
नज़र हुए थे
मर गए थे भीतर
फिर जी कर भी
हम ज़िंदा हो न पाये।

दाग शराफ़त के
कुछ ऐसे लगे थे
ज़िंदगी भी खुल कर
फिर हम जी न पाये।❤️❤️




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