क़बूल है वो
मेरे दिल को तो
ज़माने की और
ख़्वाहिशें क्या हैं
इक रोज़ तो
हिजर् ए फ़ना
होना है फिर
किसी की साज़िशें
क्या हैं?

मैं जज़्ब उसके
जिस्म ओ रूह
में हूँ तो
मोहब्बत की
नुमाइशें क्या हैं
टूट कर इक रोज़
उसी में बिखर
जाना है फिर
और मेरी फरमाईशें
क्या हैं?

मेरी सासों का
लिबास उसे
कर दूँ तो
तड़प की और
बारिशें क्या हैं
प्रीत को तो
इश्क़ ए अक्स में
ढल जाना है फिर
उठे सवालों की
रिहाईशें क्या हैं?

मिली हैं रूहें तो
रस्मों की
बंदिशें क्या हैं
यह जिस्म तो
इक रोज़
ख़ाक हो जाना है
फिर रंजिशें
क्या हैं?❤️❤️

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