वो मेरी तलब में
मेरी जानिब मुड़ आया
जिसे सफ़र करना
गवारा ना था
मैंने भी राह वो चुनी
जिसपे उसका घर था
हमारा ना था।

वो मेरे दिल में
बसता चला गया
जिसे किसी की
धड़कन बनना
प्यारा  ना था
मैंने भी उसी की
रूह में बसेरा ढूँढा
जिसकी क़िस्मत का
मैं सितारा ना था।

वो मेरे अक्स में
ढलता चला गया
जिसने कभी आईना
भी निहारा ना था
मैंने भी ख़ुद पर
उसे यूँ ओढ़ लिया
जैसे मेरी रूह का
कोई सहारा ना था।

वो मेरे इश्क़ में
ढूब गया
जिसे तैरना भी
गवारा ना था
मैंने भी तो मोहब्बत की
जिसपे हक़ हमारा
ना था।❤️❤️

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