उलझे सिरे ज़िंदगी के
तुम्हारे भी हैं
उलझी सी गाँठों में
उलझे हम भी हैं
सुलझायें कैसे उलझने
बेशुमार बहुत हैं।

बेबसी तेरी भी
बेबस कुछ हम भी हैं
मजबूर दोंनो इस क़दर
ग़लतफ़हमियाँ  ज़हन में
उभरी तो बहुत हैं।

नाकाम गर तुम हो
लिपटे नाकामियों में हम भी हैं
मुस्कुराते हैं लब प्रीत के
मगर सच तो ये है कि
दर्दों के अश्क़ बहुत हैं।

तुम्हारे पास भी कम नहीं
मेरे पास भी बहुत हैं
ये परेशानियाँ आजकल
फ़ुरसत में बहुत हैं।❤️❤️

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