लफ़्ज़ों को अब मेरे
स्याही की पोशाक रास आ गई
पन्नों से अब गुफ़्तगू
कुछ इस क़दर रास आ गई।
महफ़िल की तलाश नहीं अब
तन्हाई कुछ ख़ास भा गई
अल्फाजों को अब मेरे
क़लम की जुबां अहसास आ गई
ख़ामोशियों में लिपट कर
इक शोर का आभास करा गई
अकेली नहीं हूँ प्रीत
तेरी याद मेरी नज़्म के बहुत पास आ गई
ख़ामोशी अब जब से रास आ गई
ज़िंदगी इसी बहाने
कुछ पास आ गई।❤️❤️

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